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निजी स्कूलों का फीस किताबों का बड़ा खेल हर सरकार हर मंत्री लगाम लगाने में है फेल
देहरादून
उत्तराखंड की अस्थाई राजधानी देहरादून एजुकेशन हब के रूप में जानी जाती है लेकिन इन दिनों सोशल मीडिया पर यह एजुकेशन माफिया के रूप में जानी जा रही है अभिभावकों को इतनी महंगी किताबें खरीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है कि खून पसीने की कमाई से वह अपने बच्चे के उज्जवल भविष्य के खातिर हर जुल्म महंगाई सहने को चुपचाप तैयार है और शिक्षा विभाग सिर्फ जांच के नाम पर इस महंगाई के घाव में फूंक मारने का काम कर रहा है।
प्रतिवर्ष निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की किताबों पर औसतन जहां 6 से ₹7000 खर्च हो रहे हैं वहीं केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाई जाने वाली एनसीईआरटी की किताबें 600 से ₹700 में आ जा रही है अभिभावकों के अनुसार कोई अगर पुरानी किताबें लेकर काम चलाना चाहे तो प्राइवेट स्कूल हर साल किताबे बदल रहे हैं किताबों के कवर और अंदर के कुछ चैप्टर आगे पीछे कर अभिभावकों को नई पुस्तकें खरीदने को कहा जा रहा है किताबें भी ज्यादा लगाई जा रही है अधिकतर स्कूल किताबें खरीदने में ऐसा खेल कर रहे हैं कि अभिभावक उस चुंगल से बच नहीं पा रहे हैं यदि किसी के पास कुछ किताबें पुरानी रह भी जाती हैं ऐसे में किताबों की दुकान से एक क्लास का पूरा सेट बनाकर अभिभावकों को पूरा ही दिया जा रहा है और तो और उस किताबों के बंडल में काफी से लेकर कलर और स्कूल के नाम से छपे हुए ब्राउन पेपर भी बेचे जा रहे हैं हैरानी की बात यह है कि कॉपियों में वहीं से प्रिंट होकर स्कूल का नाम लिखा गया कुछ वर्षों पहले जिन स्कूलों में प्लेग्रुप और नर्सरी में किताब कॉपियों की लूट नहीं थी अब वहां भी यह लूट आरंभ हो गई है लगता है मानो बहती गंगा में अब हर कोई हाथ धोने को बेताब है।
फीस का आलम यह है कि किसी ना किसी बहाने परिजनों से मोटी फीस वसूली की जा रही है और विभाग सरकार मानो आंख बंद किए बैठी हो ।
बच्चों के अभिभावक कहते हैं कि इससे अच्छा तो अरविंद केजरीवाल सरकार का दिल्ली मॉडल है जहां सरकारी स्कूलों में भी प्राइवेट से बढ़कर सुख सुविधाएं और पानी बिजली रियायती दरों पर अपनी जनता को उपलब्ध कराई जा रही है