क्या हाईकमान के पास और भी विकल्प हैं?

समझना होगा राजस्थान का गणित

विधानसभा में कांग्रेस के जितने विधायक हैं उनमें से 75 फीसदी से अधिक अशोक गहलोत के समर्थक हैं। दावा है कि 92 से अधिक विधायक गहलोत समर्थक हैं जबकि सचिन पायलट के पास कुल 15-17 विधायकों का समर्थन है। यही नहीं, निर्दलीय चुनाव जीतने वाले भी अधिकतर वही विधायक हैं जो अशोक गहलोत के लॉयलिस्ट हैं, पुराने  कांग्रेसी हैं। पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो वे निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते।

सचिन पायलट के साथ दिक्कत ये है कि उनके पास सिर्फ अपने गुट के विधायकों का समर्थन हासिल है। न्यूट्रल लाइन रखने वाले विधायकों को ये बात लगातार अखरती रही है पिछले साल सचिन पायलट ने राज्य में कांग्रेस सरकार को गिराने का प्रयास किया था। दावा किया जाता है कि उनके पीछे बीजेपी का हाथ था। गहलोत समर्थक विधायकों का कहना है कि जिस नेता ने पार्टी के साथ दगा किया हो उसे नहीं बल्कि उन विधायकों में से किसी को गहलोत के विकल्प के रूप में चुना जाए जो उस वक्त मजबूती से सरकार के साथ खड़ा रहा।

मौजूदा खेल के पीछे कौन ?

कयास कई तरह के हैं। राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा में हैं। अशोक गहलोत और सचिन पायलट दोनों ने ही उनसे इसी दौरान मुलाकात की। सूत्र बताते हैं कि गहलोत कभी भी पार्टी अध्यक्ष पद मन से नहीं लेना चाहते थे। कोच्चि में उनकी और राहुल गांघी की मुलाकात में उन्होंने ये बात साफ भी कर दी थी। उनकी सबसे बड़ी हिचक सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने को लेकर थी। गहलोत चाहते थे कि, पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद वे मुख्यमंत्री का पद छोड़े। दूसरा, उनका ही कोई करीबी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे।

ये भी बताया जा रहा है कि, गहलोत की बात को वजन देते हुए राहुल गांधी ने सचिन पायलट से साफ कह दिया था कि आपके पास विधायक नहीं हैं, बहुमत के लिए जरूरी विधायकों का दस्तखत लेकर आओ, फिर मुख्यमंत्री बनो।

गड़बड़ कहां हुई ?

कांग्रेस आलाकमान के सामने सबसे बड़ी परेशानी उनके इर्दगिर्द ऐसी चौकड़ी का बने रहना है जो जमीनी नेताओं से दूर अपनी पसंद-नापसंद को आगे बढ़ाने का काम करते हैं। राजस्थान के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ। जयपुर में वरिष्ठ पत्रकार अनिल शर्मा बताते हैं कि, सबसे बड़ी गलती अजय माकन ने की। गहलोत जैसे वरिष्ठ नेता से मुलाकात न करके उन्होंने मामले को और खऱाब कर दिया। उन्होंने ऐसा करके कुछ तरह का संकेत दे दिया कि पार्टी आलाकमान तो सचिन पाय़लट के पक्ष में है और अशोक गहलोत पार्टी का अनुशासन तोड़ रहे हैं। बस, बात यही से और खराब हो गई। वैसे भी, अजय माकन अगर जमीनी स्तर पर विधायकों का सही फीडबैक लेते तो उन्हें पायलट और गहलोत का फर्क समझ में आ जाता।

सचिन पायलट की चुप्पी या बेबसी ?

पूरे मामले में सचिन पायलट ने खामोशी बरती है। कहा जा रहा है कि ये उनका मास्टर स्ट्रोक है। लेकिन क्या सचमुच ऐसा है ?  विधायकों के समर्थन के गणित में तो सचिन पाय़लट फेल हैं। उनकी एकमात्र उम्मीद पार्टी आलाकमान है। उन्हें ऐसा लग रहा है कि गहलोत की हरकत से नाराज पार्टी आलाकमान उन पर दांव खेलने को मजबूर होगा। उनके सामने सिर्फ वेट एंड वॉच वाली स्थिति है।

आलाकमान के सामने क्या हैं विकल्प ?

सूत्र बता रहे हैं कि अशोक गलहोत ने जिस तरह का शक्ति प्रदर्शन किया उससे पार्टी आलाकमान खासा नाराज है। वे पार्टी अध्यक्ष पद की रेस से फिलहाल बाहर हो गए हैं। दिग्विजय सिंह और मल्लिकार्जुन खड़गे पर पार्टी अब दांव खेलने का मन बना रही है।

सवाल ये है कि अशोक गहलोत से नाराजगी किस पर भारी पड़ेगी? क्या अशोक गहलोत को फर्क पड़ेगा या फिर पार्टी आलाकमान को झुकना होगा?
अनिल शर्मा बताते हैं कि, अशोक गहलोत राजस्थान की राजनीति के गेम चेंजर हैं, बल्कि इस समय तो वे राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी के लिए गेम चेंजर की भूमिका में दिख रहे हैं। शर्मा बताते हैं कि राज्य की राजनीति पर जिस तरह की पकड़ गहलोत की है वैसी पकड़ सचिन पाय़लट की नहीं है। वे किन्हीं पॉकेटों में मजबूत हैं लेकिन उन्हें गहलोत के विकल्प के रूप में देखना पार्टी की सबसे बड़ी भूल साबित हो सकती है। शर्मा मानते हैं कि अशोक गहलोत पार्टी के एक समर्पित नेता रहे हैं। दिल्ली दरबार का आशीर्वाद भी हमेशा उनके साथ रहा और उन्होंने उसे बखूबी निभाया भी है। वे पार्टी के खिलाफ जाने वाले लोगों में नहीं हैं। उन पर दबाव बढेगा तो वे इस्तीफा देकर घर बैठ जाएंगे लेकिन पार्टी को तोड़ने या बीजेपी के साथ हाथ मिलाने जैसे काम नहीं कर सकते।

अनिल शर्मा कहते हैं कि, राजस्थान में अगले साल के अंत में विधानसभा चुनाव हैं। पार्टी आलाकमान के लिए बेहतर होगा कि वो राज्य में पंजाब जैसे प्रयोग न करे। उपयुक्त तो यही होगा कि सचिन पायलट को राष्ट्रीय संगठन में डाल कर उन्हें जय़पुर से फिलहाल दूर ही रखा जाए। क्योंकि, पार्टी के पास गहलोत के तुरुप का कोई तोड़ नहीं है। मामला जितनी जल्दी ठंडा हो जाए बेहतर है। गलती से भी पार्टी की तरफ से अगर अशोक गहलोत के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई तो शायद पार्टी को ही ज्यादा नुकसान होगा।